नाकआउट तकनीकी द्वारा जीन को किया जा सकता है कंट्रोल:प्रॉफ़ ब्रूस व्हाइटलॉ- मानव भगवान बनने की तरफ़ अग्रसर,एडनेट में बताया क्लोन से कैसे बनी थी डॉली भेड़
आज विज्ञान नें ऐसे टूल बना लिए है की वो भगवान बन सकता है लेकिन इसके लिए पूरी मानव जाती को निर्णय करना पड़ेगा की वो इन टूल्स का मानव विकाश या मानव विनाश के लिए इस्तेमाल करना चाहता है। यह बात डॉली भेड़ को बनाने वाले इंस्टिट्यूट रोसलिन इंस्टिट्यूट यूके के डायरेक्टर प्रॉफ़ ब्रूस व्हाइटलॉ ने ऐडनेट अंतरराष्ट्रीय कांफ्रेंस के दूसरे दिन के प्रेसिडेंशियल लेक्चर में कही। क्रिस्पर टेक्नीक से DNA के खराब पार्ट को निकाला जा सकता है प्रॉफ़ ब्रूस व्हाइटलॉ ने कहा - रोसलिन इंस्टीट्यूट में हम दो मुख्य चीजों पर ध्यान देते है पहला जीनोम इंजीनियरिंग के लिए टूल बनाना ओर दूसरा मानव बेहतरी के लिए ग्लोबल रिसर्च को लीड करना। उन्होंने आगे बताया की मानव जीनोम में 3 अरब बीस करोड़ एजीसीटी बेस होते है जो वो वह अपने माता-पिता से प्राप्त करता है, लेकिन अब हम लोग ऐसे समय में है जहां हम लोग अपने जीनोम को फिर से लिख सकते है। इसके लिए उन्होंने क्रिस्पर टेक्नीक को बताया जिसके द्वारा किसी भी जीनोम के ख़राब भाग को जिनके द्वारा रोग एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में आते है को सही किया जा सकता है। इसके लिए रोसलिन इंस्टिट्यूट और यूके की सरकार ने राष्ट्रीय इम्पोर्टेंस का प्रोजेक्ट बनाया है, जिसमे सबसे पहले जानवरो पर प्रयोग किए जा रहे है। नाकआउट तकनीकी द्वारा जीन को किया जा सकता है कंट्रोल प्रॉफ़ ब्रूस व्हाइटलॉ ने कहा - किसी भी जेनेटिक रोग के होने में या तो कोई जीन ओवरेक्सप्रेस होता है या तो अंडरएक्सप्रेस, और अब हम ऐसे समय में है जब इंजीनियरिंग बायोलॉजी द्वारा इसको कंट्रोल कर सकते है। उन्होंने बताया कि पूरे जीनोम में से सबसे महत्वपूर्ण डीएनए के भाग को टारगेट सेलेक्शन द्वारा पहचान किया जाता है, जिसके बाद अगर वो रोगकारक है तो उनको नाकआउट तकनीकी द्वारा बाहर कर दिया जाता है, उसके बंद रहने से समस्या है, तो उसको एक्टिवेट किया जा सकता है और अगर एक्टिवेट होने से कोई रोग है तो उसको डिएक्टीवेट किया जा सकता है। इसके पहले उन्होंने ऐडनेट की सराहना की और कहा कि वह पहली बार वाराणसी आए और महसूस किया की क्यों काशी को सर्व शिक्षा की राजधानी कहते है। आखिर कैसे बना डॉली भेड़ वैज्ञानिक साइंटिस्ट क्लोन बनाने की कोशिश में जुटे हुए थे। बार-बार फेल हो जाते। फिर सोचा कि क्यों न इस बार भेड़ों पर ही एक्सपेरिमेंट कर लिया जाए. आसान नहीं था डॉली को बनाना। डॉली को ‘न्यूक्लियर ट्रांसफर’ तकनीक के जरिए बनाया गया। ‘न्यूक्लियर ट्रांसफर’ में दो भेड़ो के 'सेल' लिए गए। फिन डॉरसेट सफेद भेड़ के सेल से न्यूक्लियस निकाल कर स्कॉटिश काली भेड़ के सेल (अंडे) में डाल दिया गया। बिना न्यूक्लियस के सेल मर जाता है। स्कॉटिश काले मुंह वाली भेड़ के अंडे में न्यूक्लियस सफेद भेड़ का डाला गया था। नए सेल को स्कॉटिश काली चेहरे वाली भेड़ के गर्भाशय (युट्रस) में रखा गया। जो उसकी सरोगेट मां थी। सरोगेट मां सिर्फ बच्चे को पैदा करती है 227 बार भेड़ों पर एक्सपेरिमेंट में असफल होने के बाद, 5 जुलाई 1996 को डॉली पैदा हुई। उस पूरे टीम में शामिल डॉली भेड़ को बनाने वाले इंस्टिट्यूट रोसलिन इंस्टिट्यूट यूके के डायरेक्टर प्रॉफ़ ब्रूस व्हाइटलॉ हमें पूरी जानकारी दी। डॉली के बाद क्लोनिंग में आया बदलाव डॉली के बाद दूसरों जानवरों की क्लोनिंग के रास्ते खुल गए. बाद में सूअर, घोड़े, हिरण और बैलों के क्लोन भी बनाए गए। इंसानों पर भी ये एक्सपेरिमेंट करने के बारे में सोचा गया था। पर इंसानों की बनावट बहुत कॉम्प्लेक्स होती है. इसलिए सफल नहीं हो सका।
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