उत्तराखंड पंचायत चुनाव: सियासी तापमान की गर्मी, वोट के लिए जोड़-तोड़
प्रदीप रावत ‘रवांल्टा’ उत्तराखंड में पंचायत चुनावों की हलचल पूरे शबाब पर है। गांव की चौपालों से लेकर कस्बों की दुकानों तक और खेत-खलिहानों से लेकर सोशल मीडिया तक, हर जगह पंचायत चुनाव ही चर्चा का विषय बने हुए हैं। इस लोकतांत्रिक पर्व में गांव की राजनीति अपने चरम पर है, जहां हर गली और …

उत्तराखंड पंचायत चुनाव: सियासी तापमान की गर्मी, वोट के लिए जोड़-तोड़
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Written by Priya Sharma, Neha Verma, and Ankita Joshi, signed off as team India Twoday.
कम शब्दों में कहें तो, उत्तराखंड में पंचायत चुनावों की हलचल अपने चरम पर है। गांव की चौपालों से लेकर कस्बों की दुकानों तक और सोशल मीडिया से लेकर खेत-खलिहानों तक, हर जगह पंचायत चुनाव ही चर्चा का विषय बने हुए हैं। इस लोकतांत्रिक पर्व में गांव की राजनीति का हर पहलू उजागर हो रहा है, जहां हर गली और हर घर में प्रत्याशियों की चर्चाएं चल रही हैं। अधिक जानकारी के लिए यहां क्लिक करें.
ग्राम प्रधान का चुनाव: रिश्तों की वास्तविक परीक्षा
पंचायत चुनावों में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका ग्राम प्रधान के चुनाव की होती है, जो ग्राम सभा के वोटरों से सीधे जुड़ा होता है। यह चुनाव जितना साधारण दिखाई देता है, वह उतना ही जटिल होता है। गांव में जातीय समीकरण, पारिवारिक रिश्ते, मोहल्लेवार खेमेबाजी और पुराने मनमुटाव इस चुनाव को कठिन और संवेदनशील बना देते हैं।
प्रधान पद का चुनाव केवल राजनीतिक सत्ता की लड़ाई नहीं, बल्कि रिश्तों का भी परीक्षण बन जाता है। हार-जीत का असर मात्र राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक होता है। इस वजह से इसे गांव की सबसे कड़ी परीक्षा कहा जा सकता है।
क्षेत्र पंचायत से जिला पंचायत तक: चुनावी सरगर्मी
ग्राम पंचायत के चुनावों से लेकर क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत के चुनावों तक, हर स्तर पर चुनावी गतिविधियां तेजी से बढ़ रही हैं। क्षेत्र पंचायत जोकि 5 से 10 गांवों का प्रतिनिधित्व करती है, वहां भी प्रत्याशी चुनाव में अपनी ताकत झोंक रहे हैं। प्रचार-प्रसार के साथ-साथ गुप्त समीकरण भी तेजी से निर्मित किए जा रहे हैं।
हालांकि, असली मुकाबला जिला पंचायत सदस्य के चुनाव में देखने को मिल रहा है। इस बार यह चुनाव सभी राजनीतिक दलों की प्राथमिकता बन गई है, क्योंकि कई दिग्गज इस बार सीधे मैदान में उतर चुके हैं।
धनबल, बाहुबल और सट्टा: चुनावी खेल का सच
जिला पंचायत के चुनावों को हमेशा सियासी ताकत और खर्चीले तौर-तरीके का अखाड़ा माना जाता रहा है। हर एक वोट की कीमत तय होती है। इस बार अत्यधिक धन और शक्ति का खेल देखने को मिल सकता है। जो वार्ड सदस्य संसाधन, समर्थन और संगठित तंत्र रखते हैं, वही जिला पंचायत अध्यक्ष बनने की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
सत्ताधारी दल संकल्पित हैं कि अपने समर्थित सदस्यों की अधिकतम जीत सुनिश्चित की जाए, ताकि वे बाद में अध्यक्ष पद को सुरक्षित कर सकें।
भाजपा और कांग्रेस: हाथों में हाथ
इस बार पंचायत चुनाव को न केवल स्थानीय मुद्दों के संदर्भ में, बल्कि आगामी विधानसभा चुनाव 2027 की बुनियाद के रूप में भी देखा जा रहा है। इसलिए भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दल इन चुनावों को सेमीफाइनल मान रहे हैं। दोनों राजनीतिक दल अपने-अपने समर्थित प्रत्याशियों के साथ चुनावी मैदान में उतरे हैं।
विधानसभा चुनाव का गणित: सत्ता की जंग
हर पंचायत सीट इस बार सियासी रणभूमि में तब्दील हो गई है, जहां न केवल जीत का महत्व है, बल्कि रणनीति और संगठन की शक्ति भी दांव पर लगी है। पंचायत स्तर से लेकर जिला स्तर की सत्ता पर नियंत्रण, विधानसभा चुनाव के लिए रास्ता तैयार कर सकता है। अब देखना दिलचस्प होगा कि इस ग्रामीण सियासी लड़ाई में कौन सी पार्टी बाजी मारती है और कौन से प्रत्याशी जनता का विश्वास जीत पाते हैं।
इस चुनावी माहौल में जहां प्रत्येक पक्ष अपनी शक्ति पर अधिक ध्यान केंद्रित कर रहा है, वहीं मूल मुद्दों का ध्यान नहीं रखा जा रहा है। असली चुनावी मुद्दों पर चर्चा आवश्यक है, क्योंकि ये मुद्दे ग्रामीण जीवन को गहराई से प्रभावित करते हैं।
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