बच्चों की सांसें थमीं, लेकिन आंखें खुली थीं:दफनाने से पहले लगता, शायद धड़कन लौट आए; रूह कंपा देने वाले मंजर की आंखों-देखी
भोपाल गैस त्रासदी की भयावहता बताने वाली सबसे चर्चित फोटो मशहूर फोटो जर्नलिस्ट रघु राय ने क्लिक की थी। फोटो में कब्र में लेटे हुए बच्चे की आंखें खुली थी। आपने ध्यान से देखा हो तो उस फोटो में बच्चे की एक आंख में मिट्टी आने से रोक रहा एक हाथ भी दिखाई देता है। ये हाथ उस शख्स का है, जिसने 4 और 5 दिसंबर को छोला विश्राम घाट पर 700 लाशों का अंतिम संस्कार किया था। ये शख्स हैं 80 साल के जगदीशचंद्र नेमा। उनसे जब बच्चे का पता–ठिकाना जानने की कोशिश की तो पता चला कि उस समय में ऐसे एक नहीं, 100 से ज्यादा बच्चों को दफनाया गया था। इसमें कई ऐसे मासूम चेहरे थे जिनकी सांस चलना बंद हो गई थी, लेकिन उनकी आंखें बोल रही थी। नेमा कहते हैं कि उस समय अंतिम संस्कार में जो लोग मेरे साथ थे, वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। मैं अकेला जिंदा बचा हूं, बाकी कब्रिस्तान के बारे में मैं कुछ कह नहीं सकता। नेमा जैसे एक और शख्स है मुशर्रफ अली। वो इकलौते शख्स थे जिनके पास उस समय वीडियो कैमरा था। उस दौर में स्कूटर होना भी स्टेटस सिंबल माना जाता था। मुशर्रफ अली ने अपने स्कूटर पर कई लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया था। गैस त्रासदी की 40वीं बरसी पर दैनिक भास्कर ने त्रासदी के इन गुमनाम चेहरों से बात की। इन्हीं की जुबानी पढ़िए त्रासदी के खौफनाक मंजर की कहानी... रास्ते में भीड़ चल रही थी, जो गिर गया वो मर गया…
भास्कर की सबसे पहले मुलाकात जगदीश नेमा से हुई। पुराने भोपाल में रहने वाले नेमा की उम्र अब 80 साल की हो चुकी है। जिस समय त्रासदी हुई उस समय वे 40 साल के थे। जिला विकास नाम से अपना एक अखबार निकालते थे। 2-3 दिसंबर की दरम्यानी रात के मंजर को याद करते हुए कहते हैं- भोपाल इतना बड़ा नहीं था। हरियाली भी खूब थी, इसलिए ठंड भी ज्यादा महसूस होती थी। रात 8-9 बजे सभी लोग अपने घरों में दुबक जाते थे। मैं भी सोने चला गया था। रात 12 बजे के बाद मुझे बाहर शोर सुनाई दिया। मैंने बाहर निकलकर देखा तो लोग जान बचाकर बड़े और छोटे तालाब की तरफ भाग रहे थे। तालाब की तरफ जाने वाले रास्तों पर भीड़ ही भीड़ थी। कुछ लोग जमीन पर गिरे हुए थे। जो गिरा वो फिर नहीं उठा। बच्चों की लाशें ऐसे थी जैसे अब नींद से जाग पड़ेंगे
नेमा बताते हैं कि इसके बाद अगले दो दिन तक लाशों के अंतिम संस्कार का सिलसिला शुरू हुआ। छोला विश्राम घाट पर अंतिम संस्कार के लिए युवा, बुजुर्ग, महिलाएं और बच्चों की लाशों का ढेर था। मैं और मेरे साथियों ने हिम्मत नहीं हारी। हमने सोच लिया कि ईश्वर ने हमें इसी काम के लिए यहां भेजा है। बच्चों की लाशें दफनाने के वाकये को याद कर नेमा कहते हैं ‘अंतिम संस्कार लिए जब बच्चों की लाशों को गड्ढे में डालने के लिए हाथ बढ़ाता तो कई चेहरों को देखकर उन्हें किनारे कर देता था। इस उम्मीद में कि शायद उनकी सांस लौट आए। पता नहीं कौन किसका बच्चा था? कई बच्चे तो ऐसे दिख रहे थे, जैसे वे सो रहे हैं। उनके गले में नजर से बचाने वाला काला धागा बंधा था। आंखें खुली होती, ऐसा लगता कि थोड़ी देर में शायद वे नींद से जाग जाएंगे। मैं उन्हें गड्ढे के पास रख देता था, इस उम्मीद में कि थोड़ी देर में उनकी धड़कन वापस हो जाए। जब उन खुली आंखों वाले बच्चों को दफनाने के लिए कब्र में डालते थे तो मैं उनकी आंखों पर हाथ रख देता था कि उनकी आंखाें में मिट्टी न चली जाए। नेमा कहते हैं कि पहले तो एक गड्ढे में एक ही बच्चे को दफनाया गया, लेकिन जब बच्चों की लाशों की संख्या बढ़ी तो एक गड्ढे में तीन से चार बच्चों को दफनाया। सबसे बड़े बच्चे की टांगों को फैलाकर, छोटे बच्चे की लाश को रखते थे, ताकि कम जगह में ज्यादा बच्चों को दफनाया जा सके। अंतिम संस्कार के लिए श्मशान घाट की बाउंड्री तोड़ना पड़ी
नेमा कहते हैं कि बाकी महिला-पुरुषों की लाशों की तो लंबी कतार थी। पहले 20–20 लाशों को एक चिता पर रखकर एक साथ अंतिम संस्कार किया। इसके बाद 40 लाशों के लिए एक चिता बनाई। इसके बाद भी लाशें कम नहीं हो रही थी। हमने छोला विश्राम घाट के पुराने दायरे को तोड़ते हुए एक बहुत लंबी चिता बनाई। इसमें सबसे ज्यादा 122 लाशों का एक साथ अंतिम संस्कार किया। वे कहते हैं कि कई लाशें तो फूल चुकी थी। उठाने की कोशिश करो तो अगुलियां उन लाशों के भीतर तक चली जाती थी, लेकिन मेरा मन कभी नहीं घबराया। 4 और 5 दिसंबर को दो दिन और दो रात हम बिना खाए-पीए सिर्फ अंतिम संस्कार के काम में जुटे रहे। महिला–पुरुषों के लिए चिताएं बनाते और छोटे बच्चों को दफनाने के लिए गड्ढे खुदवाते। लाशों को पहचानने वाला भी कोई नहीं था
जगदीश नेमा भास्कर टीम के साथ छोला विश्राम घाट पहुंचे। वहां उन्होंने बताया कि पहले विश्राम घाट का दायरा कहां तक था। उन्होंने कहां- कहां तक बच्चों को दफनाने के लिए कब्र खोदी थी। उन्होंने ये भी बताया कि कितनी दूर तक चिताएं जल रही थीं। वो जगह भी दिखाई जहां उन्होंने और उनके साथियों ने मिलकर एक साथ 122 लाशों का अंतिम संस्कार किया था। इस दौरान उन्होंने बताया कि लाशों के अंतिम संस्कार की एक खेप का काम पूरा होता था, तब तक पहले से ज्यादा लाशें बाहर आ चुकी होती थीं। सेना की गाड़ी और एम्बुलेंस में लाशें लाई जा रही थीं। जिनके वारिस होते थे, वे एक किनारे में अंतिम संस्कार कर रहे थे, लेकिन ऐसे लोग कम ही थे। ज्यादातर लाशों को पहचानने वाला भी कोई नहीं था। हमीदिया अस्पताल के बाहर तो लाशों का अंबार लगा था, ताकि लोग अपने–अपने रिश्तेदारों को पहचान सकें। लेकिन बहुत सारी लाशों की पहचान हुए बिना ही उनका अंतिम संस्कार हो गया। लाशों की राख वाली बोरियां बेचकर नाश्ता किया
नेमा कहते हैं कि 6 दिसंबर को 700 लाशों के अंतिम संस्कार के बाद उनकी राख को एक ट्रक में भरकर नर्मदापुरम (उस समयन होशंगाबाद) में नर्मदाजी के घाट पर ले गए। लगभग 250 बोरियों में हमने वो राख भरी थी। हमने दो दिन से कुछ खाया–पीया नहीं था। राख विसर्जन के बाद खाली बोरियां हमने 1 रुपए प्रति बोरी के हिसाब से बेची। फिर उन पैसों से वहीं नर्मदापुरम में किसी
भोपाल गैस त्रासदी की भयावहता बताने वाली सबसे चर्चित फोटो मशहूर फोटो जर्नलिस्ट रघु राय ने क्लिक की थी। फोटो में कब्र में लेटे हुए बच्चे की आंखें खुली थी। आपने ध्यान से देखा हो तो उस फोटो में बच्चे की एक आंख में मिट्टी आने से रोक रहा एक हाथ भी दिखाई देता है। ये हाथ उस शख्स का है, जिसने 4 और 5 दिसंबर को छोला विश्राम घाट पर 700 लाशों का अंतिम संस्कार किया था। ये शख्स हैं 80 साल के जगदीशचंद्र नेमा। उनसे जब बच्चे का पता–ठिकाना जानने की कोशिश की तो पता चला कि उस समय में ऐसे एक नहीं, 100 से ज्यादा बच्चों को दफनाया गया था। इसमें कई ऐसे मासूम चेहरे थे जिनकी सांस चलना बंद हो गई थी, लेकिन उनकी आंखें बोल रही थी। नेमा कहते हैं कि उस समय अंतिम संस्कार में जो लोग मेरे साथ थे, वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। मैं अकेला जिंदा बचा हूं, बाकी कब्रिस्तान के बारे में मैं कुछ कह नहीं सकता। नेमा जैसे एक और शख्स है मुशर्रफ अली। वो इकलौते शख्स थे जिनके पास उस समय वीडियो कैमरा था। उस दौर में स्कूटर होना भी स्टेटस सिंबल माना जाता था। मुशर्रफ अली ने अपने स्कूटर पर कई लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया था। गैस त्रासदी की 40वीं बरसी पर दैनिक भास्कर ने त्रासदी के इन गुमनाम चेहरों से बात की। इन्हीं की जुबानी पढ़िए त्रासदी के खौफनाक मंजर की कहानी... रास्ते में भीड़ चल रही थी, जो गिर गया वो मर गया…
भास्कर की सबसे पहले मुलाकात जगदीश नेमा से हुई। पुराने भोपाल में रहने वाले नेमा की उम्र अब 80 साल की हो चुकी है। जिस समय त्रासदी हुई उस समय वे 40 साल के थे। जिला विकास नाम से अपना एक अखबार निकालते थे। 2-3 दिसंबर की दरम्यानी रात के मंजर को याद करते हुए कहते हैं- भोपाल इतना बड़ा नहीं था। हरियाली भी खूब थी, इसलिए ठंड भी ज्यादा महसूस होती थी। रात 8-9 बजे सभी लोग अपने घरों में दुबक जाते थे। मैं भी सोने चला गया था। रात 12 बजे के बाद मुझे बाहर शोर सुनाई दिया। मैंने बाहर निकलकर देखा तो लोग जान बचाकर बड़े और छोटे तालाब की तरफ भाग रहे थे। तालाब की तरफ जाने वाले रास्तों पर भीड़ ही भीड़ थी। कुछ लोग जमीन पर गिरे हुए थे। जो गिरा वो फिर नहीं उठा। बच्चों की लाशें ऐसे थी जैसे अब नींद से जाग पड़ेंगे
नेमा बताते हैं कि इसके बाद अगले दो दिन तक लाशों के अंतिम संस्कार का सिलसिला शुरू हुआ। छोला विश्राम घाट पर अंतिम संस्कार के लिए युवा, बुजुर्ग, महिलाएं और बच्चों की लाशों का ढेर था। मैं और मेरे साथियों ने हिम्मत नहीं हारी। हमने सोच लिया कि ईश्वर ने हमें इसी काम के लिए यहां भेजा है। बच्चों की लाशें दफनाने के वाकये को याद कर नेमा कहते हैं ‘अंतिम संस्कार लिए जब बच्चों की लाशों को गड्ढे में डालने के लिए हाथ बढ़ाता तो कई चेहरों को देखकर उन्हें किनारे कर देता था। इस उम्मीद में कि शायद उनकी सांस लौट आए। पता नहीं कौन किसका बच्चा था? कई बच्चे तो ऐसे दिख रहे थे, जैसे वे सो रहे हैं। उनके गले में नजर से बचाने वाला काला धागा बंधा था। आंखें खुली होती, ऐसा लगता कि थोड़ी देर में शायद वे नींद से जाग जाएंगे। मैं उन्हें गड्ढे के पास रख देता था, इस उम्मीद में कि थोड़ी देर में उनकी धड़कन वापस हो जाए। जब उन खुली आंखों वाले बच्चों को दफनाने के लिए कब्र में डालते थे तो मैं उनकी आंखों पर हाथ रख देता था कि उनकी आंखाें में मिट्टी न चली जाए। नेमा कहते हैं कि पहले तो एक गड्ढे में एक ही बच्चे को दफनाया गया, लेकिन जब बच्चों की लाशों की संख्या बढ़ी तो एक गड्ढे में तीन से चार बच्चों को दफनाया। सबसे बड़े बच्चे की टांगों को फैलाकर, छोटे बच्चे की लाश को रखते थे, ताकि कम जगह में ज्यादा बच्चों को दफनाया जा सके। अंतिम संस्कार के लिए श्मशान घाट की बाउंड्री तोड़ना पड़ी
नेमा कहते हैं कि बाकी महिला-पुरुषों की लाशों की तो लंबी कतार थी। पहले 20–20 लाशों को एक चिता पर रखकर एक साथ अंतिम संस्कार किया। इसके बाद 40 लाशों के लिए एक चिता बनाई। इसके बाद भी लाशें कम नहीं हो रही थी। हमने छोला विश्राम घाट के पुराने दायरे को तोड़ते हुए एक बहुत लंबी चिता बनाई। इसमें सबसे ज्यादा 122 लाशों का एक साथ अंतिम संस्कार किया। वे कहते हैं कि कई लाशें तो फूल चुकी थी। उठाने की कोशिश करो तो अगुलियां उन लाशों के भीतर तक चली जाती थी, लेकिन मेरा मन कभी नहीं घबराया। 4 और 5 दिसंबर को दो दिन और दो रात हम बिना खाए-पीए सिर्फ अंतिम संस्कार के काम में जुटे रहे। महिला–पुरुषों के लिए चिताएं बनाते और छोटे बच्चों को दफनाने के लिए गड्ढे खुदवाते। लाशों को पहचानने वाला भी कोई नहीं था
जगदीश नेमा भास्कर टीम के साथ छोला विश्राम घाट पहुंचे। वहां उन्होंने बताया कि पहले विश्राम घाट का दायरा कहां तक था। उन्होंने कहां- कहां तक बच्चों को दफनाने के लिए कब्र खोदी थी। उन्होंने ये भी बताया कि कितनी दूर तक चिताएं जल रही थीं। वो जगह भी दिखाई जहां उन्होंने और उनके साथियों ने मिलकर एक साथ 122 लाशों का अंतिम संस्कार किया था। इस दौरान उन्होंने बताया कि लाशों के अंतिम संस्कार की एक खेप का काम पूरा होता था, तब तक पहले से ज्यादा लाशें बाहर आ चुकी होती थीं। सेना की गाड़ी और एम्बुलेंस में लाशें लाई जा रही थीं। जिनके वारिस होते थे, वे एक किनारे में अंतिम संस्कार कर रहे थे, लेकिन ऐसे लोग कम ही थे। ज्यादातर लाशों को पहचानने वाला भी कोई नहीं था। हमीदिया अस्पताल के बाहर तो लाशों का अंबार लगा था, ताकि लोग अपने–अपने रिश्तेदारों को पहचान सकें। लेकिन बहुत सारी लाशों की पहचान हुए बिना ही उनका अंतिम संस्कार हो गया। लाशों की राख वाली बोरियां बेचकर नाश्ता किया
नेमा कहते हैं कि 6 दिसंबर को 700 लाशों के अंतिम संस्कार के बाद उनकी राख को एक ट्रक में भरकर नर्मदापुरम (उस समयन होशंगाबाद) में नर्मदाजी के घाट पर ले गए। लगभग 250 बोरियों में हमने वो राख भरी थी। हमने दो दिन से कुछ खाया–पीया नहीं था। राख विसर्जन के बाद खाली बोरियां हमने 1 रुपए प्रति बोरी के हिसाब से बेची। फिर उन पैसों से वहीं नर्मदापुरम में किसी ने चाय पी तो किसी ने नाश्ता किया। एक फोटो की वजह से नेमा ने पत्रकारिता छोड़ दी
एक बच्चे की लाश को अपने दोनों हाथों में लिए हुए नेमा की फोटो देश–दुनिया की कई पत्र–पत्रिकाओं में छपी। नेमा कहते हैं कि मैं उकता गया था, क्योंकि जिस जिस पत्र-पत्रिका में फोटो छपी उसमें कैप्शन में लिखा गया कि एक पिता अपने बच्चे को उठाकर अंतिम संस्कार के लिए ले जाते हुए। हकीकत ये है कि वो मेरा बच्चा नहीं था। मैंने तो ऐसे अनगिनत बच्चों का अपने हाथों से अंतिम संस्कार किया था। उनके मां-बाप में इतनी हिम्मत कहां थी कि वे अपने बच्चों को यहां तक ला पाते। किसी पत्रकार ने मुझे आज तक ये नहीं पूछा कि क्या वो मेरा बच्चा था? फिर धीरे-धीरे मैंने पत्रकारिता छोड़ ही दी। अंतिम संस्कार में साथ देने वाले लोग अब नहीं रहे
नेमा के पास देश दुनिया की वो तमाम मैगजीन और अखबार हैं, जिनमें गैस त्रासदी के बाद के हालातों का जिक्र है। वे कहते हैं कि किसी पत्रकार ने मुझसे संपर्क कर ये नहीं पूछा कि मैंने और मेरे साथियों ने त्रासदी के बाद क्या किया था। वे कहते हैं कि उस समय अंतिम संस्कार में जो लोग मेरे साथ थे, वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। मैं अकेला शख्स बचा हूं। उस समय क्रबिस्तान में भी शवों को दफनाया जा रहा था वहां के बारे में नहीं बता सकता। उस दौर में वीडियो कैमरे वाले इकलौते शख्स मुशर्रफ
भोपाल गैस त्रासदी के दूसरे अहम प्रत्यक्षदर्शी हैं मुशर्रफ अली। मुशर्रफ 1982 में ओमान की सेना की नौकरी छोड़कर आए थे। ओमान से आते हुए वे अपने साथ एक वीडियो कैमरा भी लेकर आए थे। उनके वीडियो कैमरे की वजह से शहर में उनकी अच्छी खासी पहचान थी। दावा है कि उस समय शहर में सिर्फ उन्हीं के पास वीडियो कैमरा था। भास्कर की टीम जब मुशर्रफ से मिली तो वो अपने एक कमरे में ले गए। जहां बेतरतीब तरीके से वीडियो कैसेट और सीडी रखी हुई थी। हमने उनसे पूछा कि क्या आपने उस दौरान वीडियो शूट किया था। तो वह बोले कि हां बहुत सारे वीडियो बनाए थे। उनसे वह वीडियो दिखाने के लिए कहा कि तो उस बेतरतीब कमरे को दिखाते हुए बोले- अब कहां है रखे हैं मैं खुद नहीं जानता। स्कूटर पर कई लोगों को सुरक्षित जगह पहुंचाया
मुशर्रफ ने बताया कि उस रात को मैं भी शाहजहांनाबाद के पास अपने घर पर सो रहा था। पड़ोसियों ने दरवाजा खटखटाया। मैं नींद से जागा तो पड़ोसी खांस रहे थे। उन्होंने बताया कि गैस रिस गई है। मैं बाहर निकला तो देखा कि लोग तालाब की ओर भाग रहे हैं। कमला पार्क से गुजरते हुए लोगों के चेहरे कपड़ों से ढंके थे। वे खांस रहे थे। मदद मांग रहे थे। उन्हीं में से एक था सिकंदर महमूद। उसकी 5 बच्चियां थीं। मैं अपने स्कूटर पर था। महमूद ने कहा कि इनको ले जाओ। मैंने कहा कि तुम चलो। तो वो बोला कि नहीं, मैं तो दिल का मरीज हूं। मैं उसकी पांचों बेटियों को अपनी स्कूटर पर ले गया। मैं पलटकर आया और उनकी मां की तलाश करता रहा। पत्नी ने टोका तो बेटी ने कहा- मां यही वक्त है इंसानियत का
मुशर्रफ कहते हैं कि मैं कई लोगों को अपने स्कूटर से सुरक्षित स्थान पर ले गया था। मेरी बीवी ने कहा कि आप पहले हमें छोड़ दीजिए, बाद में सोशल सर्विस कीजिएगा। तब मेरी बड़ी बेटी ने कहा कि नहीं मम्मी यही वक्त है इंसानियत का। उन्हें वो करने दीजिए, जो वो कर रहे हैं। मुशर्रफ गर्व से कहते हैं अब मेरी बेटी आस्ट्रेलिया में साइंटिस्ट है। इसके बाद मैंने कई बच्चों को सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया। दूसरे के बच्चों को छोड़ने के बाद मैं अपने परिवार को लेकर गया। मुशर्रफ कहते हैं कि गैस रिसने पर सबसे ज्यादा असर बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन की तरफ था, लेकिन लोग सुरक्षित ठिकाने के लिए उसी तरफ भाग रहे थे। मैं कैमरा लेकर कब्रिस्तान गया। वहां कब्रें खोदी जा रही थीं और लाशों को दफनाया जा रहा था। हालांकि वहां मुझे फोटो-वीडियो लेने की मनाही थी। फिर मैं श्मशान घाट गया। ये हमारे बचपन के दोस्त हैं नेमा। नेमा वहां लोगों के अंतिम संस्कार में लगे थे। लोग अपने हाथों में लाशें लेकर आ रहे थे। उनके साथ महिलाएं थीं।