अंतरराष्ट्रीय लवी मेले में दिखती है हिमाचली संस्कृति की झलक:तिब्बत-अफगानिस्तान से आते थे व्यापारी, बुशहर रियासत में तलवारों और घोड़ों का होता था आदान-प्रदान

शिमला जिले की रामपुर रियासन में लवी मेला मध्य शताब्दी से चल रहा है। 1911 से कुछ वर्ष पूर्व रामपुर में तिब्बत और हिंदुस्तान के बीच व्यापार शुरू हुआ। उस समय राजा केहर सिंह ने तिब्बत सरकार के साथ व्यापार को लेकर संधि की थी। इस व्यापार मेले में कर मुक्त व्यापार होता था। लवी मेले में किन्नौर, लाहौस स्पीति, कुल्लू और प्रदेश के अन्य क्षेत्रों से व्यापारी पैदल पहुंचने थे। वर्षों पुराने रामपुर लवी मेला वर्ष 1985 में अंतर राष्ट्रीय स्तर का घोषित किया गया। मुख्यमंत्री वीरभद्र ने किया था मेले को अंतर्राष्ट्रीय घोषित वर्ष 1983 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद वीरभद्र सिंह ने 1985 में मेले को अंतर्राष्ट्रीय घोषित किया था।ये है लवी मेले का इतिहास लवी मेला लगभग पिछले 3 शताब्दियों से मनाया जा रहा है। किंतु इसे व्यापारिक मेले का आधिकारिक स्वरूप तब मिला, जब सन 1911 में बुशहर रियासत के राजा केहरी सिंह ने तिब्बत सरकार से व्यापारिक संधि की। इस उपलक्ष्य पर तिब्बत और बुशहर रियासत के व्यापारिक रिश्तों की स्मृति में घोड़े और तलवारें आदान प्रदान की जाती थी। पहले तिब्बत और अफगानिस्तान से भी व्यापारी यहां अपना सामान बेचने आते थे, किंतु तिब्बत चीन के अधीन होने के बाद यह सब बंद हो गया। लवी शब्द की उत्पत्ति लवी शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में एक मत नहीं है। कुछ इसे ऊन के उस पारंपरिक परिथन के नाम से उत्पन्न बताते है, जिसे लोईया कहा जाता है। कुछ विद्वान इसे लोई अर्थात ऊन से बने ओढ़ने वाले कपड़े से उत्पन्न मानते है। उपयुक्त दोनों मतों में ऊन से बने कपड़े सर्वमान्य है। लवी में ऊन से बनी पट्टियां, टोपी, शॉल, सूक्ष्म मोटा कम्बल, जुमा वस्त्र, कालीन और स्वेटर प्रमुख रूप से विक्रय के लिए आते हैं। इसमें पारंपरिक हस्तकला का गरिमा मय प्रदर्शन देखने को मिलता है। इसके अतिरिक्त सूखे मेवे, जिनमें अखरोट, खुमानी प्रमुख है, जो इस मेले की विशेषता है। लवी मेला हिमाचल का एकमात्र सबसे बड़ा व्यापारिक मेला हिमाचल का एकमात्र सबसे बड़ा व्यापारिक मेला अपना असल पहचान खोता जा रहा है। इस मेले में तिब्बत, अफगानिस्तान और उज्बेकिस्तान से व्यापारी पहुंचते थे। साथ ही यहां पर घोड़ों, बकरियों और स्थानीय उत्पादों की खून खरीद फरोख्त होती थी, लेकिन अब मेले की पहचान आधुनिकता ने ले ली है। जबकि इसकी असल पहचान पर कोई काम नहीं कर रहा है। पूर्व में ग्रामीण क्षेत्र से पहुंचकर लोग वर्ष भर का सामान लवी में खरीदते थे, लेकिन अब जगह जगह दुकानों की व्यवस्था होने से लवी मेले में होने वाले व्यापार पर भी असर देखने को मिल रहा है। बकरियों और स्थानीय उत्पादों की होती है खरीद-फरोख्त मूल में व्यापार के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता है। हर वर्ष बकरियों और स्थानीय उत्पादों की खूब खरीद फरोख्त होती थी, लेकिन अब समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है। मेले में व्यापार के साथ साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता है। हर वर्ष 11 से 14 नवंबर तक होने वाले इस अन्तर्राष्ट्रीय लवी मेले में स्टार कलाकारों के साथ प्रदेश भर के विभिन्न क्षेत्रों की संस्कृति भी देखने को मिलती है।

Nov 1, 2024 - 10:40
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अंतरराष्ट्रीय लवी मेले में दिखती है हिमाचली संस्कृति की झलक:तिब्बत-अफगानिस्तान से आते थे व्यापारी, बुशहर रियासत में तलवारों और घोड़ों का होता था आदान-प्रदान
शिमला जिले की रामपुर रियासन में लवी मेला मध्य शताब्दी से चल रहा है। 1911 से कुछ वर्ष पूर्व रामपुर में तिब्बत और हिंदुस्तान के बीच व्यापार शुरू हुआ। उस समय राजा केहर सिंह ने तिब्बत सरकार के साथ व्यापार को लेकर संधि की थी। इस व्यापार मेले में कर मुक्त व्यापार होता था। लवी मेले में किन्नौर, लाहौस स्पीति, कुल्लू और प्रदेश के अन्य क्षेत्रों से व्यापारी पैदल पहुंचने थे। वर्षों पुराने रामपुर लवी मेला वर्ष 1985 में अंतर राष्ट्रीय स्तर का घोषित किया गया। मुख्यमंत्री वीरभद्र ने किया था मेले को अंतर्राष्ट्रीय घोषित वर्ष 1983 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद वीरभद्र सिंह ने 1985 में मेले को अंतर्राष्ट्रीय घोषित किया था।ये है लवी मेले का इतिहास लवी मेला लगभग पिछले 3 शताब्दियों से मनाया जा रहा है। किंतु इसे व्यापारिक मेले का आधिकारिक स्वरूप तब मिला, जब सन 1911 में बुशहर रियासत के राजा केहरी सिंह ने तिब्बत सरकार से व्यापारिक संधि की। इस उपलक्ष्य पर तिब्बत और बुशहर रियासत के व्यापारिक रिश्तों की स्मृति में घोड़े और तलवारें आदान प्रदान की जाती थी। पहले तिब्बत और अफगानिस्तान से भी व्यापारी यहां अपना सामान बेचने आते थे, किंतु तिब्बत चीन के अधीन होने के बाद यह सब बंद हो गया। लवी शब्द की उत्पत्ति लवी शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में एक मत नहीं है। कुछ इसे ऊन के उस पारंपरिक परिथन के नाम से उत्पन्न बताते है, जिसे लोईया कहा जाता है। कुछ विद्वान इसे लोई अर्थात ऊन से बने ओढ़ने वाले कपड़े से उत्पन्न मानते है। उपयुक्त दोनों मतों में ऊन से बने कपड़े सर्वमान्य है। लवी में ऊन से बनी पट्टियां, टोपी, शॉल, सूक्ष्म मोटा कम्बल, जुमा वस्त्र, कालीन और स्वेटर प्रमुख रूप से विक्रय के लिए आते हैं। इसमें पारंपरिक हस्तकला का गरिमा मय प्रदर्शन देखने को मिलता है। इसके अतिरिक्त सूखे मेवे, जिनमें अखरोट, खुमानी प्रमुख है, जो इस मेले की विशेषता है। लवी मेला हिमाचल का एकमात्र सबसे बड़ा व्यापारिक मेला हिमाचल का एकमात्र सबसे बड़ा व्यापारिक मेला अपना असल पहचान खोता जा रहा है। इस मेले में तिब्बत, अफगानिस्तान और उज्बेकिस्तान से व्यापारी पहुंचते थे। साथ ही यहां पर घोड़ों, बकरियों और स्थानीय उत्पादों की खून खरीद फरोख्त होती थी, लेकिन अब मेले की पहचान आधुनिकता ने ले ली है। जबकि इसकी असल पहचान पर कोई काम नहीं कर रहा है। पूर्व में ग्रामीण क्षेत्र से पहुंचकर लोग वर्ष भर का सामान लवी में खरीदते थे, लेकिन अब जगह जगह दुकानों की व्यवस्था होने से लवी मेले में होने वाले व्यापार पर भी असर देखने को मिल रहा है। बकरियों और स्थानीय उत्पादों की होती है खरीद-फरोख्त मूल में व्यापार के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता है। हर वर्ष बकरियों और स्थानीय उत्पादों की खूब खरीद फरोख्त होती थी, लेकिन अब समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है। मेले में व्यापार के साथ साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता है। हर वर्ष 11 से 14 नवंबर तक होने वाले इस अन्तर्राष्ट्रीय लवी मेले में स्टार कलाकारों के साथ प्रदेश भर के विभिन्न क्षेत्रों की संस्कृति भी देखने को मिलती है।

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