भास्कर ओपिनियन:महाराष्ट्र में गुरिल्ला युद्ध, झारखंड में आन की लड़ाई

महाराष्ट्र और झारखंड में चुनाव हैं। वक्त खड़ाऊ पहनकर तेजी से गुजर रहा है। कभी गेलेक्सी पर पाँव रखता। कभी पर्वतों को लांघता। कभी कायनात को पार करता…! झारखंड में मामला उतना पेचीदा नहीं है जितना महाराष्ट्र में। महाराष्ट्र के कई लोगों को समझ में नहीं आ रहा है कि आख़िर कौन सी शिवसेना असली? आख़िर कौन सी एनसीपी अपनी? सबकी चीर-फाड़ करके टुकड़े कर दिए गए हैं। ढूँढते रह जाओगे वाली शैली में। कहाँ जाएँ? किसको अपनाएँ, समझ में नहीं आता। इधर लोकसभा चुनाव में अपनी साइलेंट उपस्थिति दर्ज करवा चुके जरांगे पाटील ने एक बार फिर अपनी गुरिल्ला युद्धवाली नीति अपना ली है। मराठा आंदोलन से उपजे जरांगे ने पहले कहा था अपने प्रत्याशी खड़े करके चुनाव मैदान में उतरूंगा। फिर पलट गए। अब कह रहे हैं- लड़ेंगे नहीं, हराएँगे। इशारा साफ है कि मराठा बाहुल्य सीटों पर वे किसे नुक़सान पहुँचाने वाले हैं! पिछले लोकसभा चुनाव में उन्होंने सीधे तौर पर भाजपा को चोट पहुँचाई थी। इस बार उनकी चोट किधर होगी, कितनी दमदार होगी, कहा नहीं जा सकता। वैसे, तब से अब तक गोदावरी में बहुत-सा पानी बह चुका है और भाजपा ने जरांगे की काट ढूँढ ली है। लाडकी बहना के रूप में। महाराष्ट्र में लाडकी बहना। झारखंड में झामुमो की मैया के मुकाबले दीदी। बहरहाल, नाम वापसी की तारीख़ बीत चुकी है और चुनाव जिताने और हराने के लिए जरांगे के अलावा भी कई लोग मैदान में उतर आए हैं। चुनावी भाषा में इन्हें बागी कहा जाता है। ये बागी जो हैं वो चुनाव जिताते भी हैं और हराते भी हैं। ये खड़े होते भी हैं। खड़े किए भी जाते हैं। वोटों को बाँटना या काटना ही इनका मुख्य काम होता है। जैसे- जैसे चुनाव की तारीख़ नजदीक आ रही है, नेता चिल्ला रहे हैं। बागीताल ठोंक रहे हैं। जैसे लोहारों की भट्टी में आग भड़कती है! जैसे कुम्हारों का आवा दहकने लगता है! मुनादी बजने लगी है दनादन। नगाड़ों पर ऐलान हो रहे हैं। रुकेगी नहीं ये लड़ाई। जिनके शब्दों के खन्जर तेज धार के साथ वार करते फिरते थे, अब मतदाताओं के सामने सजदे में बिछने लगे हैं। रबड़ के पेड़ों पर सूलियाँ टांगी हुई हैं। कोई किसी से कम नहीं। किसी को, किसी का डर नहीं। सबको सत्ता चाहिए। सबकी चाहत कुर्सी है। किसे मिलेगी, किसे नहीं, यह आम आदमी को तय करना है। मतदाताओं को नक्की करना है। लेकिन मतदाता चुप है। हमेशा से। अपने ही सिरहाने बैठकर, अपने को ही गहरी नींद में सोते हुए देखना उसकी आदत है। वह कुछ नहीं बोलता। जैसे उसका मुँह एक बंद तहख़ाना हो! उसे शौक़ है अपना सुनहरा दिन खूँटी से लटकाकर, हैंगर में टंगी रात पहनने का। अपने ही हाथों अपनी क़िस्मत में अंधेरा लिख लेता है वो। चुनाव परिणाम के दिन पता चलेगा कि क्या वह अपना मुँह खोल पा रहा है? क्या वह कुछ बोल पा रहा है? बोलने से याद आया - चुनाव परिणाम से पहले जो बोलते रहते हैं- यानी एग्जिट पोल। उनकी विश्वसनीयता को आग लग गई है। अब तो आम आदमी भी इन एग्जिट पोल को कानफोडू भोंपू मानने लगा है। लोकसभा चुनाव में औंधे मुंह गिरे थे और हरियाणा चुनाव के वक्त तो इन्हें गाड़ने के लिए ज़मीन तक नहीं मिल पाई! महाराष्ट्र और झारखंड में इनका क्या होगा, वक्त ही बताएगा।

Nov 6, 2024 - 06:25
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भास्कर ओपिनियन:महाराष्ट्र में गुरिल्ला युद्ध, झारखंड में आन की लड़ाई
महाराष्ट्र और झारखंड में चुनाव हैं। वक्त खड़ाऊ पहनकर तेजी से गुजर रहा है। कभी गेलेक्सी पर पाँव रखता। कभी पर्वतों को लांघता। कभी कायनात को पार करता…! झारखंड में मामला उतना पेचीदा नहीं है जितना महाराष्ट्र में। महाराष्ट्र के कई लोगों को समझ में नहीं आ रहा है कि आख़िर कौन सी शिवसेना असली? आख़िर कौन सी एनसीपी अपनी? सबकी चीर-फाड़ करके टुकड़े कर दिए गए हैं। ढूँढते रह जाओगे वाली शैली में। कहाँ जाएँ? किसको अपनाएँ, समझ में नहीं आता। इधर लोकसभा चुनाव में अपनी साइलेंट उपस्थिति दर्ज करवा चुके जरांगे पाटील ने एक बार फिर अपनी गुरिल्ला युद्धवाली नीति अपना ली है। मराठा आंदोलन से उपजे जरांगे ने पहले कहा था अपने प्रत्याशी खड़े करके चुनाव मैदान में उतरूंगा। फिर पलट गए। अब कह रहे हैं- लड़ेंगे नहीं, हराएँगे। इशारा साफ है कि मराठा बाहुल्य सीटों पर वे किसे नुक़सान पहुँचाने वाले हैं! पिछले लोकसभा चुनाव में उन्होंने सीधे तौर पर भाजपा को चोट पहुँचाई थी। इस बार उनकी चोट किधर होगी, कितनी दमदार होगी, कहा नहीं जा सकता। वैसे, तब से अब तक गोदावरी में बहुत-सा पानी बह चुका है और भाजपा ने जरांगे की काट ढूँढ ली है। लाडकी बहना के रूप में। महाराष्ट्र में लाडकी बहना। झारखंड में झामुमो की मैया के मुकाबले दीदी। बहरहाल, नाम वापसी की तारीख़ बीत चुकी है और चुनाव जिताने और हराने के लिए जरांगे के अलावा भी कई लोग मैदान में उतर आए हैं। चुनावी भाषा में इन्हें बागी कहा जाता है। ये बागी जो हैं वो चुनाव जिताते भी हैं और हराते भी हैं। ये खड़े होते भी हैं। खड़े किए भी जाते हैं। वोटों को बाँटना या काटना ही इनका मुख्य काम होता है। जैसे- जैसे चुनाव की तारीख़ नजदीक आ रही है, नेता चिल्ला रहे हैं। बागीताल ठोंक रहे हैं। जैसे लोहारों की भट्टी में आग भड़कती है! जैसे कुम्हारों का आवा दहकने लगता है! मुनादी बजने लगी है दनादन। नगाड़ों पर ऐलान हो रहे हैं। रुकेगी नहीं ये लड़ाई। जिनके शब्दों के खन्जर तेज धार के साथ वार करते फिरते थे, अब मतदाताओं के सामने सजदे में बिछने लगे हैं। रबड़ के पेड़ों पर सूलियाँ टांगी हुई हैं। कोई किसी से कम नहीं। किसी को, किसी का डर नहीं। सबको सत्ता चाहिए। सबकी चाहत कुर्सी है। किसे मिलेगी, किसे नहीं, यह आम आदमी को तय करना है। मतदाताओं को नक्की करना है। लेकिन मतदाता चुप है। हमेशा से। अपने ही सिरहाने बैठकर, अपने को ही गहरी नींद में सोते हुए देखना उसकी आदत है। वह कुछ नहीं बोलता। जैसे उसका मुँह एक बंद तहख़ाना हो! उसे शौक़ है अपना सुनहरा दिन खूँटी से लटकाकर, हैंगर में टंगी रात पहनने का। अपने ही हाथों अपनी क़िस्मत में अंधेरा लिख लेता है वो। चुनाव परिणाम के दिन पता चलेगा कि क्या वह अपना मुँह खोल पा रहा है? क्या वह कुछ बोल पा रहा है? बोलने से याद आया - चुनाव परिणाम से पहले जो बोलते रहते हैं- यानी एग्जिट पोल। उनकी विश्वसनीयता को आग लग गई है। अब तो आम आदमी भी इन एग्जिट पोल को कानफोडू भोंपू मानने लगा है। लोकसभा चुनाव में औंधे मुंह गिरे थे और हरियाणा चुनाव के वक्त तो इन्हें गाड़ने के लिए ज़मीन तक नहीं मिल पाई! महाराष्ट्र और झारखंड में इनका क्या होगा, वक्त ही बताएगा।

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