‘विश्व दिव्यांग दिवस’ कानपुर के सुनील मंगल की कहानी:जिंदगी ने बनाया अपाहिज, 2800 दिव्यांगों का संवारा जीवन, सरकार से लड़ कर लिया DL
कानपुर, कल्याणपुर निवासी सुनील मंगल जन्म के 6 माह बाद ही पोलियो की बीमारी से ग्रसित हो गए थे, जिसमें उनके दोनों पैर जीवन भर के लिए खराब हो गए। बीमारी ने सुनील को पैरों से तो अपाहिज बना दिया, लेकिन उनके हौसलों की रफ्तार को न रोक सकी। सुनील ने दिव्यांग रहते हुए पोस्ट ग्रेजुएट की पढ़ाई के बाद बीमा एजेंट के रूप में अपना जीवन यापन शुरू किया। दिव्यांगों की मदद को संस्था से जुड़े समाज में हीनभावना का शिकार दिव्यांगों को बल देने के लिए सुनील 1995 में डॉ आरआर मिश्रा की द्रग्श्रम स्वंय सेवी समिति के साथ जुड़े और कंप्यूटर शिक्षा, सिलाई–कढ़ाई, हवन सामग्री, टेडीबियर, अगरबत्ती, धूपबत्ती समेत अलग–अलग क्षेत्रों की वोकेशनल ट्रेनिंग शुरू की। सुनील के मुताबिक अब तक उनकी संस्था 3200 लोगों को ट्रेनिंग दे चुकी, जिसमें 2800 से अधिक दिव्यांग कुटीर उद्योग कर रहे है। सुनील के मुताबिक उनकी संस्था से ट्रेनिंग लेकर दिव्यांग दीपू सिंह नौबस्ता गल्ला मंडी में हर्बल साबुन की फैक्ट्री संचालित कर रहे हैं। किदवई नगर में Deaf and Dumb तीन कॅपल टैडीबियर तैयार करने का काम कर रहे है, इसके साथ ही तमाम ऐसे दिव्यांग है, जो समाज से उपेक्षित होकर संस्था के साथ जुड़े और आज अपने दम पर खड़े हुए है। पिता ने कहा–समाज को जानो आगे बताया कि उनके पिता ऑर्डिनेंस फैक्ट्री व मां प्राइवेट शिक्षिका के रुप में कार्यरत थी। सुनील बतातें है कि उनके माता–पिता ने उनके अन्य तीन भाईयों से कभी कम नहीं आका। उन्होंने कहा कि वह कक्षा पांच में थे, तभी एक दिन उनके पिता ने कहा कि पढ़ाई के साथ बाहर निकलो और समाज को परखो, जिससे समाज आपको पहचानेगा। USA की संस्था से मिली आजीवन सदस्यता उन्होंने बताया कि 1992 में कानपुर यूनिवर्सिटी से एम कॉम के दौरान इंश्योरेंस सब्जेक्ट में गोल्ड मैडल हासिल किया। जिसके बाद उन्होंने इसी सब्जेक्ट में उन्होंने कैरियर बनाने के ठानी। दिव्यांग होने के कारण परिजनों ने दौड़ भाग का काम करने के बजाए, ऑफिशियल वर्क खोजने की बात कही, लेकिन वह नहीं माने और बीमा एजेंट के रूप में काम शुरू कर दिया। कार्य करने के बाद उन्हें USA की मिलियन डॉलर राउंड टेबल (MDRT) की आजीवन सदस्यता मिली। 15 माह संघर्ष के बाद मिला लाइसेंस सुनील ने बताया कि अच्छे प्रदर्शन के बाद जब उन्हें कंपनी की ओर से कार मुहैया कराई गई तो उन्होंने वर्ष 1996 में कानपुर आरटीओ में लाइसेंस के लिए आवेदन किया, जहां उन्हें दिव्यांगों के लिए लाइसेंस व्यवस्था न होने की जानकारी मिली। इसके बाद वह सपा सरकार के परिवहन मंत्री से मिले, जिसके बाद उन्हें निराशा हाथ लगी। तत्कालीन परिवहन आयुक्त रामफल से मुलाकात होने के बाद करीब 15 माह की लंबी लड़ाई के बाद कानपुर आरटीओ ने उनका लाइसेंस स्वीकृत किया। सुनील ने बताया कि उस दौरान दिव्यांग के रूप में प्रदेश का उनका पहला चार पहिया वाहन का लाइसेंस बना था। दिव्यांगों के लिए जारी है लड़ाई सुनील ने बताया आज भी वह दिव्यांगों को समाज में अधिकार दिलाने के लिए लड़ाई लड़ रहे है। बताया कि सरकारी, गैर सरकारी कार्यालयों में दिव्यांगों के बैठने के लिए ढली हुई कुर्सियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए, दिव्यांगों की बैठक में फर्श पर कालीन का प्रयोग न हो, सार्वजनिक प्रसाधन अलग–अलग ऊचांईयों पर हो, फर्श के स्तर में बदलाव पर रंग परिवर्तन किया जाए, सीढ़ियों पर लगी रेलिंगों में किसी प्रकार का सौंदर्यीकरण न हो, सभागार, सिनेमाहाल में दिव्यांगों के लिए किनारे पर बैठने की व्यवस्था हो, होटलो में दिव्यांगों के लिए कम ऊंचाई वाले पलंग व ठोस गद्दों का प्रयोग किया जाए।
What's Your Reaction?